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अपने ही कर्म भोग रही कांग्रेस

अजीत द्विवेदी
सर्वोच्च अदालत ने नाउम्मीद किया। उम्मीद की जा रही थी कि प्रवर्तन विदेशालय, ईडी के असीमित अधिकारों को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत अपने पुराने फैसलों का ध्यान रखेगी और इसके अधिकारों को तर्कसंगत बनाने का फैसला सुनाएगी। लेकिन अदालत ने इसके हर अधिकार को न्यायसंगत ठहराया। छापा मारने, गिरफ्तार करने और संपत्ति जब्त करने के उसके अधिकार को सुप्रीम कोर्ट ने एब्सोल्यूट यानी संपूर्ण माना। उसे चुनौती नहीं दी जा सकती है। इसके साथ ही अदालत ने धन शोधन निरोधक कानून यानी पीएमएलए में गिरफ्तार व्यक्ति की जमानत की सख्त शर्तों का भी समर्थन किया। ध्यान रहे यह ऐसा कानून है, जिसमें अपनी बेगुनाही का सबूत जुटाने का जिम्मा आरोपी का होता है। बाकी मामलों में पुलिस या प्रवर्तन एजेंसी आरोपी को दोषी साबित करने के सबूत जुटाती है लेकिन इसमें आरोपी को बेगुनाही का सबूत जुटाना होता है। ऐसा कोई सबूत सामने आने पर ही जमानत का प्रावधान है।

सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने जमानत के इस प्रावधान को गलत माना था और इस पर सवाल उठाए थे। पांच साल पहले जस्टिस रोहिंटन नॉरीमन और जस्टिस संजय किशन कौल की बेंच ने पीएमएलए के मामले में जमानत के प्रावधान को मनमाना और असंवैधानिक करार दिया था। दोनों जजों ने कहा था कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि न्याय की बुनियादी धारणा किसी भी आरोपी को तब तक बेगुनाह मानने की है, जब तक कि उसका अपराध प्रमाणित नहीं होता है। यानी अपराधी साबित होने तक हर आरोपी बेगुनाह होता है। यह इकलौता मामला नहीं है, जिसमें सर्वोच्च अदालत ने ईडी से जुड़े कानूनों को लेकर इस तरह की टिप्पणी की हो। सितंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख को लेकर अहम फैसला सुनाया था। असल में प्रवर्तन निदेशक के एक साल के सेवा विस्तार को अदालत में चुनौती दी गई थी, जिस पर सुनवाई करते हुए जस्टिस एल नागेश्वर राव की बेंच ने कहा था कि सेवा विस्तार की अवधि खत्म होने में दो महीने बचे हैं इसलिए उनको पद पर रहने दिया जाए लेकिन सरकार आगे उनको सेवा विस्तार न दे। उन्होंने यह भी कहा था कि सेवा विस्तार देना सरकार का अधिकार है लेकिन ऐसा बहुत विशेष परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के बाद भी केंद्र सरकार ने प्रवर्तन निदेशक को सेवा विस्तार ही नहीं दिया, बल्कि सेवा विस्तार का नया कानून बना दिया, जिसके तहत किसी भी एजेंसी के अधिकारी को उसकी नौकरी समाप्त होने के बाद पांच साल तक एक-एक साल का सेवा विस्तार दिया जा सकता है। तभी उम्मीद थी कि जस्टिस नॉरीमन और जस्टिस नागेश्वर राव के दो अलग अलग फैसलों की रोशनी में जस्टिस एएम खानविलकर की बेंच ईडी के अधिकारों पर विचार करेगी और उसमें कुछ कटौती करेगी ताकि विपक्षी पार्टियों के खिलाफ उसे हथियार की तरह इस्तेमाल होने से रोका जा सके। लेकिन तीन जजों की बेंच ने ईडी के एब्सोल्यूट अधिकार को बरकरार रखा।

एक तरफ ईडी के पास बिना कोई कागज दिखाए छापा मारने, गिरफ्तार करने, संपत्ति जब्त करने और आरोपी को लंबे समय तक हिरासत में रखने का अधिकार है तो दूसरी ओर सरकार के पास अधिकार है कि वह इस एजेंसी के प्रमुख पद पर एक-एक साल का सेवा विस्तार देकर किसी खास अधिकारी को बैठाए रखे। सोचें, इससे कितना कुछ बदल जाता है। सेवा विस्तार पर काम कर रहे अधिकारी की नौकरी तलवार की धार पर होती है। उसे किसी भी समय हटाया जा सकता है। रिटायर होने के साथ ही उसकी गारंटीशुदा सेवा समाप्त हो जाती है फिर वह सेवा विस्तार देने वाले राजनीतिक प्रमुख की कृपा से नौकरी कर रहा होता है। इसलिए उससे वस्तुनिष्ठ तरीके से कानून के पालन की उम्मीद कम हो जाती है। तभी यह अनायास नहीं है कि आज ईडी देश की सर्वाधिक चर्चित एजेंसी हो गई है। देश का शायद ही कोई विपक्षी दल होगा, जिसके नेताओं के खिलाफ ईडी की कार्रवाई नहीं चल रही है।

असल में सीबीआई या किसी दूसरी एजेंसी के मुकाबले ईडी का इस्तेमाल आसान और ज्यादा प्रभावी है। याद करें कैसे दो साल पहले 2020 में देश के करीब आठ राज्यों ने सीबीआई को दिया गया जनरल कन्सेंट वापस ले लिया था। इसका मतलब था कि सीबीआई अपने आप उन राज्यों में जाकर जांच नहीं कर सकती थी। सो, सीबीआई का इस्तेमाल मुश्किल हो गया था। दूसरी एजेंसी आयकर विभाग है, लेकिन उसका इस्तेमाल उतना प्रभावी नहीं है क्योंकि उसके पास सख्त कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है। इन दोनों के मुकाबले ईडी का इस्तेमाल आसान भी है और बहुत प्रभावी भी है। केंद्र सरकार इसका प्रभावी इस्तेमाल कर भी रही है। तभी राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा कि ईडी ने पूरे देश में आतंक मचा रखा है।

अब सवाल है कि ईडी नाम के हथियार का निर्माण किसने किया? किसने आर्थिक अपराध की जांच करने वाली एक एजेंसी को इतने अधिकार दिए? किसने आर्थिक अपराध के लिए इतनी सख्त सजा के प्रावधान किए? और सबसे बड़े सवाल है कि किसने एक केंद्रीय एजेंसी का हथियार के तौर पर इस्तेमाल शुरू किया? इन सभी सवालों का जवाब है- कांग्रेस। ईडी का गठन 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय हुआ था। लेकिन इसे हथियार बनाने, बेलगाम करने और असीमित अधिकार देने का काम कांग्रेस ने किया। याद करें कैसे 2009 से 2012 के बीच कांग्रेस ने झारखंड में मधु कोड़ा से लेकर आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी और तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार से लेकर महाराष्ट्र में अपने ही नेताओं के खिलाफ इस एजेंसी का इस्तेमाल किया। कांग्रेस इस बात की शिकायत कर सकती है कि भाजपा की केंद्र सरकार ज्यादती कर रही है। लेकिन सवाल कम या ज्यादा का नहीं है। आर्थिक अपराध की जांच करने वाली एक एजेंसी को असीमित अधिकार देकर उसके इस्तेमाल की शुरुआत कांग्रेस ने की थी और भाजपा की सरकार उसी रास्ते पर चल रही है। कांग्रेस ने अपने दूसरे कार्यकाल में पी चिदंबरम के गृह मंत्री रहते एनआईए का गठन किया था और उसे भी इसी तरह के अधिकार दिए थे। आज एनआईए का भी हथियार की तरह इस्तेमाल हो रहा है। कांग्रेस ने संविधान से नागरिकों को मिले अधिकारों को दबाने वाले अधिकार देकर इन एजेंसियों को मजबूत किया था और उसी का खामियाजा आज पूरा विपक्ष उठा रहा है।

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