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खाद्य सुरक्षा बनाम किसान का हित

अजीत द्विवेदी

केंद्र सरकार ने गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगाई तो खाद्य सुरक्षा बनाम किसान के हित की सनातन बहस फिर छिड़ गई। निर्यात पर पाबंदी का फैसला देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिहाज से किया गया एक अच्छा फैसला है लेकिन क्या यह फैसला किसानों को नुकसान पहुंचाने वाला है? कांग्रेस पार्टी ने यही कहते हुए फैसले का विरोध किया कि बढ़ते निर्यात का फायदा किसानों को हो रहा था लेकिन इस सरकार से यह देखा नहीं गया। कांग्रेस और कुछ अन्य कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि निर्यात बढऩे से निजी कारोबारी न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा कीमत पर गेहूं खरीद रहे थे और इसका फायदा किसानों को हो रहा था। दूसरी ओर सरकार की ओर से केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने ट्विट करके कहा है कि भारत में गेहूं का स्टॉक भरपूर है लेकिन भारत की खाद्य सुरक्षा और सस्ते अनाज की उपलब्धता सुनिश्चित करने और बाजार की अटकलों से निपटने के लिए सरकार ने निर्यात पर रोक लगाने का फैसला किया। कई कृषि विशेषज्ञ सरकार के इस तर्क का समर्थन कर रहे हैं।

तभी सवाल है कि क्या देश की खाद्य सुरक्षा और किसानों का हित अनिवार्य रूप से एक-दूसरे के विरोधी हैं? क्या देश के नागरिकों को सस्ता खाद्यान्न उपलब्ध कराने की नीति की वजह से किसानों को उनकी पैदावार का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है? क्या किसानों का हित सुनिश्चित करते हुए सरकार खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकती है? इन सवालों का जवाब बहुत सरल नहीं है। अगर सिर्फ तात्कालिक मामले को देखें तो कह सकते हैं कि सरकार ने खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से निर्यात रोकने का अच्छा फैसला किया है। लेकिन सरकार चाहे तो किसानों को उनकी उपज की तय कीमत के ऊपर ज्यादा कीमत देकर उनके नुकसान की भरपाई कर  सकती है। मिसाल के तौर पर सरकार अगर 2,015 रुपए प्रति क्विंटल की दर से गेहूं खरीद रही है तो प्रति क्विंटल एक निश्चित बोनस घोषित कर दे, जिससे किसानों के हित की भी रक्षा हो जाएगी।

ध्यान रहे मंडियों में निजी कारोबारी किसानों का अनाज एमएसपी के ऊपर कोई सौ-दो सौ रुपए ज्यादा देकर नहीं खरीद रहे हैं। निजी कारोबारी प्रति क्विंटल पांच से 15 रुपए तक ज्यादा भुगतान कर रहे हैं। ऐसे में अगर सरकार दो सौ रुपए प्रति क्विंटल बोनस दे तो किसानों को बड़ा लाभ होगा। सरकार ने अभी इस तरह का एक फैसला किया है। किसानों को राहत देने के लिए केंद्र सरकार ने हरियाणा में 18 फीसदी तक सिकुड़ गए गेहूं की खरीद की मंजूरी दे दी है।
ध्यान रहे मार्च-अप्रैल में अचानक गर्मी में हुई बढ़ोतरी से पंजाब और हरियाणा दोनों जगह गेहूं के दाने 15 से 20 फीसदी तक सिकुड़ गए। इनकी खरीद नहीं होने से किसान परेशान हो रहे थे। क्वालिटी खराब होने के बावजूद अगर सरकार गेहूं की खरीद करती है और गर्मी की वजह से फसल को हुए नुकसान की भरपाई के लिए प्रति क्विंटल बोनस की घोषणा करती है तभी किसानों के हितों की रक्षा होगी।

अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो इसका मतलब होगा कि वह वोट की राजनीति के लिहाज से जरूरी खाद्यान्न सुरक्षा नीति पर ज्यादा ध्यान दे रही है और किसानों की अनदेखी कर रही है। ध्यान रहे सरकार इस समय प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत देश के 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को पांच किलो अनाज और एक किलो दाल मुफ्त दे रही है। इस योजना को सितंबर तक बढ़ा दिया गया है और यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि इसे 2024 के लोकसभा चुनाव तक चलाए रखना है। उसके लिए जरूरी है कि सरकारी अनाज गोदाम भरे रहें। निर्यात पर पाबंदी लगाने का पहला कारण तो यहीं है कि सरकार को मुफ्त अनाज योजना के लिए पर्याप्त गेहूं की जरूरत है। पैदावार 11 करोड़ टन के अनुमान से कम होने और सरकारी खरीद में 44 फीसदी की गिरावट आने के बाद सरकार के लिए जरूरी हो गया था कि वह निर्यात रोके। अन्यथा खुदरा बाजार में गेहूं और आटे की कीमत बेतहाशा बढ़ रही थी और सरकार को मुफ्त बांटने के लिए अनाज की उपलब्धता कम होने की चिंता सता रही थी। सो, उसने आनन-फानन में निर्यात रूकवा दिया। अच्छी बात है कि सरकार अपनी अनाज योजना को जारी रखे लेकिन साथ ही किसानों को हुए नुकसान की भरपाई करने के उपाय भी निश्चित रूप से करना चाहिए।

वह उपाय दो तरह से हो सकता है। पहला तो यह कि सरकार किसानों को हुए नुकसान का मुआवजा दे। उनकी उपज पर प्रति क्विंटल बोनस निश्चित करे। दूसरा तरीका यह है कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत अनाज की बजाय सरकार नकद पैसा मुहैया कराए। जन वितरण प्रणाली के तहत पहले से जो सस्ता अनाज मिलता रहा है उससे ऊपर जो अनाज दिया जाता है उसके बदले अगर सरकार पैसा देती है तो लोग अपनी पसंद से खाने की चीजें खरीद सकते हैं। ध्यान रहे गेहूं की पैदावार कम होने से इसकी महंगाई बढ़ी है लेकिन दूसरे कई अनाज ऐसे हैं, जिनकी कीमत नहीं बढ़ी है। उस पैसे लोग दूसरे अनाज, दालें, दूध, अंडे आदि खरीद सकते हैं। इससे गेहूं और चावल पर से दबाव कम होगा। फिर निर्यात पर पाबंदी लगाने की जरूरत नहीं होगी। किसान खुले बाजार में एमएसपी से ज्यादा कीमत पर अनाज बेच सकेंगे।

बहरहाल, चाहे जिस तरीके से हो लेकिन सरकार को खाद्यान्न सुरक्षा और किसान के हित के बीच संतुलन बनाना होगा। सीधे निर्यात रोक देना कोई समाधान नहीं है। इस तरह के फैसलों से सरकार की नीतियों और उसकी सोच को लेकर गंभीर सवाल खड़े होते हैं। सोचें, 11 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ बातचीत के दौरान कहा था कि अगर वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन, डब्लुटीओ मंजूरी दे तो भारत दुनिया का पेट भरने के लिए कल से निर्यात शुरू कर सकता है। उन्होंने दुनिया का पेट भरने वाली बात मई के पहले हफ्ते में हुई यूरोप की तीन दिन की यात्रा के दौरान भी दोहराई। लेकिन 13 मई को अचानक उनकी सरकार ने गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगा दी। वह भी ऐसे समय में जब गेहूं का सबसे बड़ा निर्यातक देश रूस युद्ध में उलझा है और यूक्रेन भी निर्यात नहीं कर पा रहा है। इस तरह के फैसले से सरकार की अगंभीरता झलकती है। जी-7 देशों के कृषि मंत्रियों ने इसके लिए सरकार की आलोचना भी की है और कहा है कि अगर सारे देश इसी तरह निर्यात रोकने का फैसला करने लगें तो पहले से चल रहा संकट और गहरा होगा।

सो, सरकार निर्यात रोकने की बजाय गेहूं का न्यूनतम निर्यात मूल्य तय कर सकती थी। इस तरह के और भी उपाय सोचे जा सकते थे, जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की किरकिरी नहीं होती और घरेलू स्तर पर भी सामंजस्य बनता। नीतियों में अगर इसी तरह की एप्रोच रही तो आने वाले सीजन से निजी कारोबारी किसानों को एमएसपी के ऊपर ज्यादा मूल्य देकर फसल नहीं खरीदेंगे। वे सावधानी बरतेंगे, जिसका नुकसान किसानों को उठाना होगा। यह स्थिति हर फसल के मामले में हो सकती है क्योंकि जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम का मिजाज बिगड़ रहा है और सबको पता है कि भारत में खेती मॉनसून पर ही निर्भर है। इसलिए किसी भी सीजन में फसल खराब हो सकती है। तो क्या सरकार हर सीजन के मुताबिक निर्यात नीति बनाएगी? सो, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि देश में एक निश्चित निर्यात नीति हो, खाद्यान्न सुरक्षा की निश्चित नीति हो और किसानों के हितों की रक्षा करने की भी निश्चित नीति हो और इन तीनों में सामंजस्य हो।

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