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अमेरिका की ऐसी चांदी

यूरोप में गहरा रहे ऊर्जा संकट से सबसे ज्यादा फायदा अमेरिका को हो रहा है। प्राकृतिक गैस की आसमान छूती कीमतों के कारण यूरोपीय कंपनियां अपना कारोबार अमेरिका ले जा रही हैं। यूरोप के उद्योग-धंधे चौपट हो रहे हैं।
यूरोप को अमेरिका का सहयोगी बताया जाता है। यूरोप अक्सर अमेरिकी हितों और रणनीति के मुताबिक उसके पीछे-पीछे चल निकलता है। यूक्रेन के मामले में तो उसने ऐसा करने की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। लेकिन उसकी ये मुसीबत अमेरिका के लिए फायदे की बात बन गई है।

यानी जहां यूरोप लुट रहा है, वहीं इसी घटना के कारण अमेरिका की चमक बढ़ रही है। यूरोप में गहरा रहे ऊर्जा संकट से सबसे ज्यादा फायदा अमेरिका को हो रहा है। प्राकृतिक गैस की आसमान छूती कीमतों के कारण यूरोपीय कंपनियां अपना कारोबार अमेरिका ले जा रही हैं। खास कर ऐसा स्टील, उर्वरक और पशु चारा का उत्पादन करने वाली कंपनियों के मामले में देखने को मिला है। कारण यह है कि अमेरिका में ऊर्जा की कीमत यूरोप की तुलना में ज्यादा स्थिर है। इसके अलावा जो बाइडेन प्रशासन ने अमेरिका में कारोबार लगाने वाली कंपनियों के लिए भारी सब्सिडी का एलान किया है। तो यूरोपीय कंपनियां इससे भी आकर्षित हुई हैँ।

परिणाम यह है कि कई अर्थशास्त्री यूरोप के डि-इंस्ट्रलियलाइज्ड होने का अंदेशा जता रहे हैं। हालांकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी रिकॉर्ड महंगाई, सप्लाई चेन संबंधी रुकावटों और मंदी की आशंका से जूझ रही है, लेकिन वहां की स्थिति यूरोप से बेहतर है। तो डेनमार्क की जेवरात कंपनी पैंडोरा ए/एस और जर्मनी की ऑटोमोबिल निर्माता कंपनी फॉक्सवॉगन एजी ने बीते हफ्ते अमेरिका में अपना कारोबार बढ़ाने की घोषणा की। उसके पहले टेस्ला ने उसने जर्मनी में बैटरी उत्पादन की योजना रोक दी। उसकी नजर भी अमेरिका पर है।

लग्जमबर्ग स्थित इस्पात कंपनी आर्सेलर मित्तल एसए ने इसी महीने जर्मनी स्थित अपने दो कारखानों में उत्पादन घटाने का एलान किया। जबकि अमेरिका के टेक्सस में स्थित उसके लौह उत्पादन कारखाने में अपेक्षा से अधिक उत्पादन हुआ। जानकारों की राय में राय में यूरोप दो वर्षों तक समस्या से घिरा रहेगा। तो कंपनियां अमेरिका जा रही हैँ। अब यूरोप के नेताओं के लिए यह सोचने का वक्त है कि उन्होंने यूक्रेन मामले में इतना क्यों गंवाया, जबकि अमेरिका के लिए ये सारा घटनाक्रम कुल मिला कर फायदे का सौदा बन गया है।

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