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निलंबन उपाय नहीं है

संसदीय लोकतंत्र में यह एप्रोच नहीं चल सकती है कि जिसका बहुमत है वह हमेशा सही है और जो विपक्ष है वह गलत है। यह स्वस्थ संसदीय लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।

संसद में महंगाई और जीएसटी के मसले पर बहस की मांग कर रहे विपक्षी सांसदों को चुप कराने का तरीका यह नहीं हो सकता है कि उनको निलंबित कर दिया जाए। लोकसभा में स्पीकर और राज्यसभा में सभापति ने निश्चित रूप से संसद की नियम पुस्तिका के हवाले सांसदों को निलंबित किया होगा। इसमें भी संदेह नहीं है कि विपक्षी सांसदों को चेतावनी दी गई होगी। इस पर भी यकीन किया जा सकता है कि ‘बहुत भरे मन से’ सांसदों को निलंबित करने का फैसला हुआ, इसके बावजूद संसदीय लोकतंत्र में इस तरह के कठोर उपाय बहुत विशेष परिस्थितियों में ही किए जाने चाहिए।

लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के चार सदस्यों को पूरे सत्र के लिए निलंबित करने के एक दिन बाद राज्यसभा में कई विपक्षी पार्टियों के 19 सांसदों को इस हफ्ते की कार्यवाही से निलंबित कर दिया गया। अगर मॉनसून सत्र के पहले सात दिन की कार्यवाही देखें तो विपक्षी सांसदों ने ऐसा कुछ नहीं किया, जिसकी वजह से उनके खिलाफ निलंबन की कार्यवाही करनी पड़े। विपक्षी सांसद सदन के वेल में जा रहे थे या नारे लगा रहे थे या तख्तियां दिखा कर विरोध कर रहे थे। इनमें से कोई काम ऐसा नहीं है, जो संसद के दोनों सदनों में पहले नहीं होता रहा है। यह सब अचानक कैसे असंसदीय हो गया? विपक्ष के सांसद महंगाई पर चर्चा कराना चाह रहे हैं और सरकार कह रही है कि वह चर्चा के लिए तैयार है। फिर भी चर्चा की बजाय निलंबन हो रहा है!

सरकार के पास बहुत बड़ा बहुमत है इसका यह मतलब नहीं है कि उसे संसद को अपने हिसाब से चलाने का लाइसेंस मिल गया है। संसद सार्थक बहस की जगह है। सांसदों के सवाल पूछने और सरकार के जवाब देने की जगह है। विपक्ष कमजोर है या उसके सांसदों की संख्या कम है इस वजह से उसके उठाए सवालों की अनदेखी नहीं की जा सकती है। जिस तरह से सरकार पूरे देश का प्रतिनिधित्व करती है वैसे ही विपक्ष भी पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता है। वह पूरे देश का विपक्ष होता है और उसे देश के हर नागरिक की तरफ से सवाल उठाने का अधिकार होता है।

संसदीय लोकतंत्र में यह एप्रोच नहीं चल सकती है कि जिसका बहुमत है वह हमेशा सही है और जो विपक्ष है वह गलत है। संसद में पिछले कई बरसों से सवाल-जवाब का स्पेस कम हुआ है, बहसों का समय घटा है, विधेयक पास कराने के तरीके बदल गए हैं, संसदीय समितियों को अप्रसांगिक बना दिया गया है और अब बात बात पर सांसदों को निलंबित करने का चलन हो गया है। यह स्वस्थ संसदीय लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।

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