ख़बर इंडिया

खौफनाक अनुभव! इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार! पढ़िए

ब्यूरो रिपोर्ट: इतिहास के पन्नों में ऐसे कई नरसंहार की कहानियों के बारे में पढ़ने को मिलता है, जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। जब-जब जिस देश में दो संप्रदायों के बीच या दो समुदायों के बीच एक दूसरे से नफरत करते हुए झगड़े होते हैं, कभी-कभी नरसंहार का रूप भी ले लेते हैं. और इस तरह के नरसंहार का असर भविष्य में झगड़ा करने वाले दोनों समुदायों की आने वाली कई  पीढ़ियो (जनरेशन)  पर दिखाई देता है.

कुछ इसी तरह का एक नरसंहार अफ्रीकी देश रवांडा में हुआ था। कहा जाता है कि महज 100 दिनों तक चले इस भीषण नरसंहार में एक-दो नहीं, बल्कि करीब आठ लाख लोग मारे गए थे। अगर इस घटना को इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार कहें, तो बिल्कुल गलत नहीं होगा।

दरअसल, इस नरसंहार का कारण माना जाता है कि साल 1994 में रवांडा के राष्ट्रपति जुवेनल हाबयारिमाना और बुरुंडी के राष्ट्रपति सिप्रेन की हत्या के कारण इस नरसंहार की शुरुआत हुई थी। प्लेन क्रैश होने के कारण इन दोनों राष्ट्रपति की मौत हो गई थी। हालांकि, अभी तक ये साबित नहीं हो पाया कि हवाई जहाज को क्रैश कराने में किसका हाथ था।

लेकिन कुछ लोग इसके लिए रवांडा के हूतू चरमपंथियों को जिम्मेदार ठहराते हैं, जबकि कुछ का मानना है कि रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ) ने ये काम किया था। क्योंकि दोनों ही राष्ट्रपति हूतू समुदाय से संबंध रखते थे, इसलिए हूतू चरमपंथियों ने इस हत्या के लिए रवांडा पैट्रिएक फ्रंट को जिम्मेदार ठहराया।

वहीं आरपीएफ का आरोप था कि जहाज को हूतू चरमपंथियों ने ही उड़ाया था, ताकि उन्हें नरसंहार का एक बहाना मिल सके। असल में यह नरसंहार तुत्सी और हुतू समुदाय के लोगों के बीच हुआ एक जातीय संघर्ष था। इतिहासकारों के मुताबिक,7 अप्रैल 1994 से लेकर अगले 100 दिनों तक चलने वाले इस संघर्ष में हूतू समुदाय के लोगों ने तुत्सी समुदाय से आने वाले अपने पड़ोसियों, रिश्तेदारों और यहां तक कि अपनी पत्नियों को ही मारना शुरू कर दिया।

हूतू समुदाय के लोगों ने तुत्सी समुदाय से संबंध रखने वाली अपनी पत्नियों को सिर्फ इसलिए मार डाला, क्योंकि मानना था कि अगर वो ऐसा नहीं करते तो  उन्हें ही मार दिया जाता। इतना ही नहीं, तुत्सी समुदाय के लोगों को मारा तो गया ही, साथ ही इस समुदाय से संबंध रखने वाली महिलाओं को सेक्स स्लेव (गुलाम) बनाकर भी रखा गया।

इन समूहों में बहुत सी ऐसी महिलाएं हैं जिनके परिवार या समुदाय के सामने उनका बलात्कार किया गया या उनके यौन अंगों को नुकसान पहुंचाया गया. इतिहासकार हेलेने दुमास कहती हैं, “तुत्सी समुदाय और उसकी नस्ल को खत्म करने के लिए बलात्कार का इस्तेमाल किया गया. ऐसा इसलिए किया गया ताकि वे तुत्सी बच्चों को जन्म ना दे पाएं. ये बलात्कार बहुत ही सोची समझी रणनीति के तहत किए गए और ये नरसंहार मुहिम का हिस्सा थे. “

रवांडा में 1994 में हुए नरसंहार  में जब सौ दिन के भीतर आठ लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था. मरने वालों में ज्यादातर अल्पसंख्यक तुत्सी कबीले के लोग थे. उनके साथ बहुसंख्यक हुतु कबीले के उदार लोगों की भी हत्याएं की गई. उस वक्त रवांडा पर चरमपंथी हुतु सरकार थी, जिसने तुत्सियों के साथ अपने समुदाय में मौजूद अपने विरोधियों का सफाया करने के लिए खास मुहिम चलाई.

इतिहासकार कहते हैं कि नरसंहार के दौरान जब बहुत सी महिलाओं को सेक्स गुलाम बनाकर भी रखा गया और ऐसे में कुछ महिलाओं को तो जानबूझ कर एचआईवी से संक्रमित किया गया. बहुत  महिलाओं ने तो अपने बच्चों को बताया ही नहीं है कि वे बलात्कार से पैदा हुए हैं. उन्होंने बाद में अपने पतियों को भी यह नहीं बताया कि उन पर क्या गुजरी. उन्हें डर था कि उनके पति कहीं उन्हें छोड़ ना दें.

योजनाबद्ध तरीके से चलाई गई मुहिम में हुतु सरकार के सैनिकों और उनसे जुड़ी मिलिशिया के लोगों ने ढाई लाख महिलाओं का बलात्कार किया. व्यापक यौन हिंसा के नतीजे में कई हजार बच्चे पैदा हुए. इन बच्चों को समाज पर दाग माना गया क्योंकि उनके पिताओं के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. पैट्रिक भी इन्हीं में से एक थे.

इस दौरान बलात्कार को भी हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया. उस दौरान ठहरे गर्भों से जो बच्चे पैदा हुए, वे जब जवान हो गए. लेकिन उनके लिए जिंदगी आसान नहीं थी. पैट्रिक के मुताबिक, “मेरे दिल में बहुत सारे जख्म हैं. मुझे नहीं पता है कि मेरा पिता कौन है. मेरा भविष्य हमेशा जटिल रहेगा. क्योंकि मुझे अपने अतीत के बारे में जानकारी नहीं है.

पैट्रिक के मुताबिक स्कूल में कभी वह बाकी बच्चों के साथ घुलमिल ही नहीं पाए. पैट्रिक इतने अकेले थे कि उन्होंने दो बार आत्महत्या करने की कोशिश भी की, एक बार 12 साल की उम्र में और दूसरी बार 22 साल की उम्र में. वैसे पैट्रिक के मुताबिक उन्होंने धीरे धीरे अपने अतीत को स्वीकारना शुरू कर दिया. अब उन्हें अपने दोस्तों और साथियों के साथ अपनी कहानी साझा करने में भी उतनी तकलीफ नहीं होती. धीरे लोग मुझे और मेरे अतीत को स्वीकार करने लगे.”

पैट्रिक के मुताबिक उनके लिए रवांडा के “समाज में घुलना मिलना” लगातार जारी रहने की प्रक्रिया है. हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि इस नरसंहार में सिर्फ तुत्सी समुदाय के ही लोगों की हत्या हुई। हूतू समुदाय के भी हजारों लोग इसमें मारे गए। कुछ मानवाधिकार संस्थाओं के मुताबिक, रवांडा की सत्ता हथियाने के बाद रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ) के लड़ाकों ने हूतू समुदाय के हजारों लोगों की हत्या की।

बता दें कि इस नरसंहार से बचने के लिए रवांडा के लाखों लोगों ने भागकर दूसरे देशों में शरण ले ली थी। पैट्रिक की मां होनोरिने के मुताबिक उन्हें चार दिन तक एक जेल में रखा गया था. वहां कई और महिलाएं भी थीं. हुतु चरमपंथी हर दिन लोगों को मार काटने के बाद जब वापस लौटते थे, तो उन सब महिलाओं का बलात्कार करते थे.  होनोरिने रोती हुई अपनी खौफनाक अनुभवों को बताया, “वे कहते थे कि उन्हें मिठाई चाहिए और मिठाई पैट्रिक की मां होनोरिने को कहा जाता था. क्योंकि होनोरिने उम्र उनमें सबसे कम थी.”

होनोरिने के मुताबिक एक बार एक लड़ाका वहां से भाग निकला, तो उन्होंने भी उसके साथ भागने की कोशिश की. रास्ते में भी होनोरिने का बलात्कार किया गया. वह कहती हैं कि इसी दौरान वह गर्भवती हुईं. उन्होंने अपने गर्भ को गिराने के बारे में भी सोचा. लेकिन फिर बच्चे को जन्म दिया, लेकिन वह उसे अपना प्यार नहीं दे पाईं और इसका उन्हें  पूरी जिंदगी मलाल है. बाद में उनकी शादी हो गई लेकिन उनके पति ने पैट्रिक को नहीं अपनाया और पैट्रिक का नाम  “हत्यारे के बेटे” का नाम दिया.

ऐसी ही कहानी रवांडा में नरसंहार के दौरान बलात्कार का शिकार बनी दूसरी महिलाओं की भी है. पहले इन महिलाओं पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया. लेकिन हाल में ऐसी महिलाओं की मदद के लिए कदम उठाए गए हैं, ताकि उनके दुख और पीड़ा को कुछ हद तक कम किया जा सके. इसके लिए पीड़ितों के संघ और कई गैर सरकारी संगठन काम कर रहे हैं.

सेवोता नाम के एक एनजीओ की संस्थापक  वर्षीय गोडेलीव मुकासारासी मुताबिक, “इसकी वजह से सबसे बुरी मानवीय त्रासदियों में से एक त्रासदी से तबाह देश और समाज को उबरने में मदद मिली है.” बलात्कार की शिकार महिलाओं के लिए कई कदम उठाए गए. लेकिन इनसे पैदा बच्चों को नरसंहार का पीड़ित नहीं माना गया. इसलिए उन्हें कोई खास मदद नहीं दी गई.

नरसंहार की विरासत से लड़ रहे और पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठनों के संघ इबूका के कार्यकारी सचिव नफताल अहिशाकिए कहते हैं कि बच्चों को अपनी मांओं के जरिए कोई अप्रत्यक्ष मदद नहीं मिली. मुकानसोरो का कहना है कि बलात्कार से पैदा बच्चों को अपनी मांओं से विरासत में जो दर्द मिला है, उससे निजात पाने का कई बार यही तरीका है कि सबसे रिश्ते तोड़ लिए जाएं.

रवांडा नरसंहार के लगभग सात साल बाद यानी 2002 में एक अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत का गठन हुआ था, ताकि हत्याओं के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा दी सके। हालांकि, वहां हत्यारों को सजा नहीं मिल सकी। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने तंजानिया में एक इंटरनेशनल क्रिमिलन ट्रिब्यूनल बनाया, जहां कई लोगों को नरसंहार के लिए दोषी ठहराया गया और उन्हें सजा सुनाई गई।

इसके अलावा रवांडा में भी सामाजिक अदालतें बनाई गई थीं, ताकि नरसंहार के लिए जिम्मेदार लोगों पर मुकदमा चलाया जा सके। कहते हैं कि मुकदमा चलाने से पहले ही करीब 10 हजार लोगों की मौत जेलों में ही हो गई थी. रवांडा में शांति के लिए दूसरे देशों से शांति सेना ने भेजी गई थी. जातीय संघर्ष में हुए इस नरसंहार के बाद से ही रवांडा में जनजातीयता के बारे में बोलना गैरकानूनी बना दिया गया है। सरकार की मानें तो ऐसा इसलिए किया गया है, ताकि लोगों के बीच नफरत न फैले और रवांडा को एक और ऐसी घटनाओं का सामना न करना पड़े.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *