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बड़ी खबर: पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का एक और बयान! कानूनी दांव पेंच से…

रिपोर्ट भगवान सिंह: मैं उत्तराखंड के लिए एक व्यापक भू-कानून क्यों चाहता हूंँ! जबकि मेरी सरकार पर्वतीय क्षेत्रों में चकबंदी का कानून बनाकर के गई और वह कानून भी बहुत सीमा तक जो सवाल उत्तराखंड के सम्मुख हैं उनका समाधान करता है।

मगर राज्य बनते वक्त जो सामान्य जन की आकांक्षाएं थी, उनके सपने थे, उन सपनों का राज्य बनाने के लिए आवश्यक है कि हम अपनी भू व्यवस्था में जन आकांक्षा के अनुरूप एक बड़ा परिवर्तन करें, उस परिवर्तन में भूमि का नया बंदोबस्त भी आवश्यक है। क्योंकि हमें जो उपलब्ध है, न केवल उसको कैसे संचालित किया जाए, उस पर सोचने की आवश्यकता है।

बल्कि हमको कुछ और भूमि कैसे राज्य के नियंत्रण में आ सकती है, गांव को उपलब्ध हो सकती है, उस पर विचार करना आवश्यक है और इसके लिए भूमि का नया बंदोबस्त एक बड़ी आवश्यकता है।

अंग्रेजों के समय में एक बंदोबस्त हुआ था और उसके बाद स्वतंत्र भारत में, छठे दशक में दूसरा भू-बंदोबस्त हुआ था। अब नए भू-बंदोबस्त के दौरान हमें गांव की उस भूमि को खोजने की जरूरत है जो गौचर पनघट के नाम पर थी और जिसमें गांव को परंपरागत अधिकार प्राप्त थे और आज वो गौचर पनघट की भूमि गांव की असिसाला से बाहर हो गई है।

दूसरी आवश्यकता नये भू-कानून की इसलिए पड़ रही है कि, राज्य बनने के बाद जितने भी उपाय किए गये कि सांस्कृतिक, आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण पर्वतांचल में जमीनों को बचाया जाय। लेकिन जमीनें आज भी बिक रही हैं और बड़े पैमाने पर बिक रही हैं। बल्कि कुछ क्षेत्रों में तो यह खतरा पैदा हो गया है कि लोग अपने ही जमीन पर बने हुये मकानों में या तो चौकीदार होंगे या कोई दूसरा काम कर रहे होंगे।

भू-स्वामी की जगह पर हम सेवक बनकर के रह जाएंगे और मुझे बेहद प्रसन्नता है कि राज्य के बड़े राजनेताओं ने इस खतरे को समझा हो या न समझा हो, मगर युवा जिस तरीके से नये भू-कानून की वकालत में आगे आ रहे हैं, अपनी बातें कह रहे हैं उससे यह लगता है कि उन्होंने इस खतरे को समझा है।

मैं नहीं कह रहा हूंँ कि जमीनों का भू उपयोग विकास की आवश्यकता के अनुरूप संशोधित होता है, लेकिन वह संशोधन सार्वजनिक हिताय होना चाहिए। इसलिये मैंने लीज पर एक लीजिंग कानून बनाया था और वह लीज पर जो जमीनें दी जाती थी, केवल शिक्षण संस्थाओं व चिकित्सालयों को दी जाती थी, ताकि स्वामित्व मूलतः गांव और ग्रामवासी का बना रहे।

तीसरी आवश्यकता गांवों के अंदर खेती छोड़ने से, गांवों में चीड़ के जंगल बनने की आशंका पैदा हो गई है और जो सही आशंका है, उसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं, जमीन उपयोगी नहीं रह गई है, तो आवश्यकता है कि हम एक ऐसा लचीला कानून बनाएं जिसके अंदर पारिवारिक गठबंधन के तहत सामूहिक खेती की जा सके।

गांव अपने आपस में अदला-बदली करके अपनी जमीनों का कंसोलिडेशन कर सकें और यदि आवश्यक हो सामान्य कानूनी फ्रेमवर्क भी और यदि इसमें सफलता में संदेह रहे तो फिर पूरी तरीके से कानूनी फ्रेमवर्क के तहत यह काम करवाया जा सकता है। हिमाचल ने वर्षों पहले इस काम को पूरा कर लिया है।

इसलिए एग्रोनॉमी में हिमाचल का जो हिस्सा है, वो सारे आर्थिक परिवर्तनों के बावजूद, बढ़ते हुए शहरीकरण के बावजूद, राष्ट्रीय औसत से ऊपर है और हमारा अर्थव्यवस्था में कृषि/बागवानी का हिस्सा निरंतर घट रहा है। इसका कारण है उत्पादों का वाणिज्यिक रूप में अनुपयोगी होना। नये कानून के तहत हमको इस बात को फैसिलिटेट करना चाहिए कि हम एक ढांचा बनाकर अपने जमीनों के उपयोग की ग्राम योजना तैयार करें।

इस काम में बड़ा खर्च होगा और मेरा मानना है कि 5 साल के लिए सड़क और दूसरे कार्यों पर खर्चा घटाया जा सकता है, मगर इस क्षेत्र में धन उपलब्ध करवाना पड़ेगा। हमें इससे एक कदम आगे बढ़कर अपने कानून के तहत ही जो लोग चकबंदी या जमीनों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया को अपनाएं, उनको आजीविका की गारंटी देनी पड़ेगी, उसके लिए भी एक बड़े राशि की आवश्यकता पड़ेगी ताकि लोग प्रोत्साहित होकर के इस पद्धति को अपनाएं।

क्योंकि यह पद्धति पहले 5-6 वर्ष में कठिनाई पैदा करेगी, लेकिन 6-7 वर्ष के बाद इसके फलितार्थ मिलने प्रारंभ हो जाएंगे। नये कानून के तहत पानी पर गांव के अधिकार को फिर से स्थापित करना पड़ेगा और गांवों को कानूनी तरीके से यह अधिकार होगा कि जितना जल वो अपने क्षेत्र में संचित करते हैं या पैदा करते हैं, उस जल पर उनको धनराशि दी जाएगी।

हमने अपने राज्य में मृदा/मिट्टी का सबसे ज्यादा बेकद्री की है और हम अपनी चाहे सड़क काटने से, चाहे किसी और तरीके के निर्माण कार्यों से जो मिट्टी खोदी जा रही है उसको नदियों तक बहने देते हैं और इसका प्रभाव है जो मिट्टी की दौलत हमारे पास थी, हम उसको हर साल बरसात में कुछ न कुछ पानी में बहा दे रहे हैं, तो नये कानून के तहत इन सब बिंदुओं पर विचार होना चाहिये, इसके अलावा और बहुत सारी बारीकियाँ हैं जिनको कानून बनाते वक्त ध्यान में रखा जाना चाहिये और मैं इस बात को भी महसूस करता हूंँ कि नये कानून के तहत हमको राज्यवासी और ग्रामवासी, दोनों शब्दों को ठीक से परिभाषित करना पड़ेगा।

ताकि भूमि का उनके मध्य जो आदान-प्रदान हो, उसको नये कानून के दायरे में लाया जा सके और उनकी आड़ में भूमि की जो खरीद हो रही है उसको रोका जा सके। मुझे उम्मीद है कि आप और बारीकी से इस सारे अध्याय का अध्ययन कर रहे होंगे और जब आप बहस आगे बढ़ाएंगे तो मुझे खुशी होगी कि मैं फिर से उस बहस का हिस्सा बन सकूं।

इस भू-कानून के जो फ्रेमर होंगे, उनको कर्नाटक की और विशेष तौर पर देवराज अर्स गवर्नमेंट द्वारा भूमि सुधार के क्षेत्र में उठाए गये कदमों का अध्ययन करना आवश्यक है। कर्नाटक गवर्नमेंट ने जमीन के विवादों को न्यायालय के परिधि से बाहर कर दिया और उसके लिए ट्रिब्यूनल बनाकर के उनको संवैधानिक अधिकार दिया कि वो उसका निस्तारण करें जिसे अंतिम माना जाय।

हमें भी अपने राज्य के अंदर क्योंकि जब नया भू-कानून व भू-बंदोबस्त आएगा तो बहुत सारे भू विवाद खड़े होंगे, जिन विवादों का निपटारा जिससे सबसे ज्यादा उलझन होती है, उस निपटारे के लिए आवश्यक है कि हम कोई ऐसा कोई रास्ता अपनाएं जो कर्नाटक के तरीके से राज्यवासियों को अनावश्यक कानूनी दांव पेंच से बचा सके।।

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