सियासत में क्या कुछ, कब बदल जाए यह निश्चित नहीं है. दोबारा सत्ता हासिल करने के लिए चुनाव से ठीक पहले राज्य में नया मुख्यमंत्री बनाकर नेतृत्व परिवर्तन करने की राजनीतिक दलों की रणनीति पुरानी है। कभी यह सफल तो कभी विफल रहती है।
उत्तराखंड में शनिवार को ये सब देखने को मिला. जब राजनीतिक पंडितों की ‘गणित’ को दरकिनार कर बीजेपी आलाकमान ने पुष्कर सिंह धामी का नाम प्रदेश के 11वें मुख्यमंत्री तौर फाइनल कर दिया. जिसके बाद रस्म अदायगी के तौर पर विधानमंडल की बैठक में सभी विधायकगणों ने समवेत सुर में धामी के नाम पर हामी भर दी.
लेकिन जहां तक उत्तराखंड का प्रश्न है तो राज्य के 20 सालों के राजनीतिक इतिहास में नेतृत्व परिवर्तन का फार्मूला हर पार्टी ने अपनाया लेकिन इससे वह चुनाव जीतने में असफल रहीं। अब देखना यह है कि इस बार क्या नतीजा निकलता है। राज्य में अगले साल के शुरू में चुनाव हैं।
उत्तराखंड जब 2000 में अलग राज्य बना तो भाजपा ने नित्यानंद स्वामी को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन उनके कामकाज से अप्रशन्न होकर एक साल के भीतर ही पार्टी ने उन्हें हटाकर भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बनाया ताकि 2002 में होने वाले पहला विधानसभा चुनाव जीता जा सके। लेकिन भाजपा चुनाव हार गई और कांग्रेस सरकार बनाने में सफल रही। कांग्रेस ने एनडी तिवारी को मुख्यमंत्री बनाया और वह पांच साल सरकार चलाने में सफल रहे।
इसके बाद राज्य में भाजपा की सरकार बनी। भाजपा ने पहले मेजर जनरल बीसी खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन विधायकों के असंतोष के कारण बीच में ही उन्हें हटाकर रमेश पोखरियाल निशंक को मुख्यमंत्री बना दिया। लेकिन जब चुनाव निकट आए तो भाजपा ने महसूस किया कि निशंक के मुख्यमंत्री रहते चुनाव जीतना मुश्किल है, इसलिए उन्हें हटाकर फिर से खंडूरी को मुख्यमंत्री बना दिया गया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। पार्टी चुनाव हार गई।
इसके बाद राज्य में कांग्रेस की सरकार बनी तो विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बनाए गए। लेकिन जल्द ही उनके रवैये को लेकर विधायकों में असंतोष पैदा हो गया। तब कांग्रेस ने दो साल के भीतर ही उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाकर हरीश रावत को मुख्यमंत्री बना दिया था। लेकिन इसका भी कोई फायदा पार्टी को नहीं मिला। हरीश रावत हालांकि तीन साल मुख्यमंत्री रहे लेकिन अगले चुनाव में कांग्रेस को बुरी तरह से पराजय का सामना करना पड़ा।
राज्य में फिर एक बार चेहरा बदलकर चुनाव जीतने की कवायद की जा रही है। इस बार स्थिति और भी अलग है। चार महीने के भीतर ही दूसरी बार मुख्यमंत्री बदल दिया गया। लेकिन यह बदलाव भी अब तक हुए बदलावों की तर्ज पर ही काम करेगा या कुछ अलग नतीजे देगा, इस पर सबकी नजरें रहेंगी।
उत्तराखंड में चार महीने के भीतर ही दूसरी बार मुख्यमंत्री बदले जाने को लेकर भाजपा की बड़ी रणनीतिक चूक के रूप में भी देखा जा रहा है। राज्य में 56 विधायकों के होते हुए भी एक सांसद को मुख्यमंत्री बनाया गया। मुख्यमंत्री बनाते समय उपचुनाव के प्रावधानों को नहीं समझा गया।
तीरथ सिंह रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद सल्ट सीट पर उपचुनाव हुआ लेकिन उसमें मुख्यमंत्री को चुनाव लड़ाने की हिम्मत आखिर भाजपा क्यों नहीं कर पाई। इससे जहां भाजपा की चूक उजागर हुई है, वहीं विपक्ष को एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा भी मिल गया है।
औसत कार्यकाल दो साल
राज्य में अब तक 10 मुख्यमंत्री हुए हैं। खंडूरी दो बार बने हैं इसलिए व्यक्ति नौ हैं। राज्य को अस्तित्व में आए 20 साल हुए हैं। इस प्रकार राज्य के मुख्यमंत्रियों का औसत कार्यकाल दो साल रहा है। सिर्फ एनडी तिवारी ही पूरे पांच सल मुख्यमंत्री रह पाए हैं।